झारखण्ड के मुख्य पर्व में से एक पर्व मंडा है। Manda Festival में अंगारों पर चलने का रस्म है। मंडा, आमतौर पर झारखण्ड में पुरे धूमधाम से मनाया जाता है। अधिकांश लोग manda Puja के बारे में नहीं जानते है , तो आज के इस पोस्ट में आप manda parv के बारे में पढ़ने जा रहे है।
मंडा पूजा के बारे में। About Manda Puja
आग पर चलने का पर्व दुनिया की कई आदिम संस्कृतियों में है। आस्था का एक ऐसा ही रंग, अंगारों के संग, पूरे छोटानागपुर में देखने को मिलता है, मंडा पर्व के रूप में। चैत्र मास ( March – April ) के शुक्ल पक्ष से प्रारंभ होकर यह पर्व ज्येष्ठ मास( May – June ) तक मनाया जाता है। यह त्योहार आग पर चलकर, उपासना व साधना की सत्यता प्रमाणित करने के लिए आदिवासियों और सदानों द्वारा सम्मिलित रूप से मनाया जाता है। अलग-अलग गाँवों में यह त्योहार, अलग-अलग दिन मनाया जाता है। शिव की इस उपासना में आदिवासी- सदान का भेद मिट जाता है। मजेदार बात यह है कि आदिवासियों का कोई भी त्योहार बलि और इलि (चावल से बनी शराब) के बिना पूरा नहीं होता, परंतु मंडा पर्व ही इनका ऐसा पर्व है, जिसमें किसी प्रकार की बलि नहीं चढ़ाई जाती,
इलि का तर्पण नहीं किया जाता, बल्कि पूर्णरूपेण सात्त्विक रूप से मनाया जाता है। इस त्योहार में मुख्य उपासक जिन्हें भगता या भगतिया कहा जाता है, के नेतृत्व में अन्य सह उपासक धधकती आग पर नंगे पैर चलते हैं, वह भी गरमी के दिनों में। जिस रात को यह त्योहार मनाते हैं, उस रात को ‘जागरण’ और आग पर चलने की क्रिया को ‘फूलखुंदी’ कहते हैं। गाँव में मंडा पर्व मनाने के लिए दो स्थान चुने जाते हैं, एक मेले के लिए और दूसरा पूजा के लिए, जो शिव मंदिर के पास होता है। उपासक या भगता कोई भी हो सकता है। इसमें कोई जाति बंधन नहीं है। 8-10 वर्ष के बालक से लेकर बूढ़े तक भगता होते हैं। यही नहीं, गैर आदिवासी भी बन सकता है। ऐसी मान्यता है कि जिस पर शिव के गण की अंश मात्र भी छाया आ जाए, वह ‘भगता’ के लिए उपयुक्त होता है। ऐसा होने पर वह व्यक्ति अपना सिर धुनने लगता है और धरती पर लोटता मंदिर के निकट पहुँचता है। मंदिर में पहुँचने के बाद ही वह व्यक्ति शांत होता है। गाँव में परंपरागत रूप से भी भगता और सहायक भगता होते हैं। भगता मुख्य रूप से कहीं पाँच,
कहीं सात और कहीं नौ दिन के लिए पदस्थापित होते हैं। पदस्थापन से पूर्व इनका मुंडन कराया जाता है, तब विधिवत पूजा प्रारंभ होती है। पूजा के प्रारंभिक दिन से अंतिम दिन तक ये उपवास में रहते हैं तथा ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। प्रतिदिन प्रातः काल जलाशय में जाकर स्नान करते हैं, और तब पूजा-पाठ में जुट जाते हैं। मुख्य भगता, पूजा-पाठ करने के बाद एक-एक गाँववाले के घर जाकर पूजा करता है। उस समयअन्य भगता साड़ी पहनकर सज-सँवरकर-‘डगर’ भरते हैं। यह पूजा ‘मंडा’ के अंतिम दिन तक नियमित रूप से चलती रहती है। मंडा की पूर्व रात्रि को लोग जागरण करते हुए, यहाँ का प्रसिद्ध लोकनृत्य ‘छऊ’ करते हैं।
मंडा में धुँआसी का रस्म | Dhuasi in Manda Festival
जमीन पर आग लगाकर खंभे के सहारे भक्ताओं को सिर नीचे की ओर करके लटका दिया जाता है और आग के आर-पार झुलाया जाता है। इसे धूप-धूवन की अग्नि शिखा पर उलटे लटकाना भी कहा जाता है। मंडा पूजा को कहीं चरक पूजा भी कहा जाता है। इसे झारखंड में सदान और आदिवासी समुदायों के साथ ही अन्य पिछड़ी जातियों एवं अनुसूचित जाति के लोग भी श्रद्धा से मनाते हैं। इस दौरान आदिवासियों का छऊ नृत्य व जतरा का भी आयोजन होता है।
मंडा में फूलखुंदी का रस्म | Phoolkhundi in Manda Festival
फूलखुंदी में भक्तजन नंगे पाँव आग पर चलते हैं। लगभग 15-20 फीट लंबा और 5-6 फीट चौड़ा नाला बनाया जाता है। इसे आम की सूखी लकड़ियों से पाट दिया जाता है। नए सूप से हवा करके उस नाले में अंगारा तैयार किया जाता है। अपनी पूजा संपन्न कर सूर्यास्त होने के बाद भगता महादेव मंदिर से दहकते अंगारे के समीप पहुँचते हैं। भगता के साथ सोखताइनें माथे पर कलश, आम्र पल्लव लेकर मार्जन करती हुईं चलती हैं। पूरी तरह अंगारे के रूप में बदलने को ‘अंगोरा’ होना कहते हैं। अंगोरा हो जाने पर पहले पुजारी उसमें से कुछ अंगारे अपनी नंगी हथेली पर लेकर मंदिर ले जाता है और देवी-देवताओं को अर्पित करता है। इसके बाद भक्तजन अंगारों पर नंगे पाँव चलते हैं। इसमें स्त्री-पुरुष और बच्चे सब शरीक होते हैं। फूलखुंदी के दूसरे दिन मेला लगता है। रातभर लोग मेले का आनंद लेते हैं। इसके दूसरे दिन सभी भगतागण ‘शिवजी की छवि’ निहारते हैं। वे तेल-सिंदूर लगाकर क्षौर कर्म करते हैं और इस तरह फूलखुंदी और मंडा पर्व का समापन होता है। चुटिया स्थित शिव मंदिर के पास मंडा मेला का शुभारंभ हो जाता है। इसके बाद जगह-जगह-गाँव-गाँव अलग-अलग तिथियों पर इस मेले का आयोजन किया जाता है।
मंडा में झूलन का रस्म | Jhulan in Manda Festival
झूलन में भक्तों की नंगी पीठ में लोहे का हुक लगाकर रस्से के सहारे लंबे खंभे पर लटकाकर चारों ओर घुमाया जाता है। इस खंभे को चरक स्तंभ या चरक डाँग मचान कहा जाता है। इस खंभे में एक चरखी लगी होती है। काफी देर तक भक्त हवा में इसी चरखी पर हुक के सहारे जमीन से 15-20 फीट तक की ऊँचाई पर हवा में लटके और तैरते या चारों ओर घूमते रहते हैं। इस दौरान वे ऊपर से फूलों की बौछार करते हैं, जिन्हें पाने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु महिलाएँ नीचे अपने आँचल पसारे इंतजार कर रही होती हैं। पुरुष भक्त भी दौड़-दौड़कर अपने हाथों में फूल पाने की कोशिश करते हैं। झूलन से फेंके गए फूलों को काफी कल्याणकारी माना जाता है और इन्हें हासिल करना बड़ा सौभाग्य है। इन फूलों के लिए भक्त स्त्री-पुरुष घंटों खड़े रहते हैं।
मान्यता के अनुसार यह पर्व अक्षय तृतीया वैशाख से आरंभ होता है, लेकिन प्रचलन में चैत के महीने से ही आयोजन प्रारंभ हो जाता है, जो पूरे वैशाख महीने तक चलता है। अलग-अलग गाँवों में अपनी सुविधानुसार अलग-अलग तिथियों पर इसका आयोजन होता है। फूलखुंदी रात में और दिन में मेला लगता है। प्रारंभ में भक्तजन शिव मंदिर में लोटन सेवा करके माँ भगवती एवं भगवान् शिव की आराधना करते हैं। रात के समय बड़ी संख्या में भक्त महिलाएँ सिर पर कलश लेकर तालाब जाती हैं। वहाँ स्नान एवं पूजा अर्चना के बाद वापस देवी मंडप आकर जलाभिषेक करती हैं। इसके बाद दहकते अंगारों पर नंगे पाँव चलकर फूलखुंदी करती हैं।
अन्य जानकारी मंडा पूजा के बारे में | Other Information about Manda Puja
यह पूजा दस दिवसीय है। दस दिनों तक भगता को कड़े अनुशासन में रहना पड़ता है। दस दिन पहले ही पारंपरिक पट भगता यानी मुख्य भगता, पूजा कार्य में सभी भगताओं का नेतृत्व करता है। भगता रात्रि में भोजन नहीं करता। नियम-संयम से रहता है। शराब-मांस घर पर नहीं पकाते। शरबत, चना, फल एक समय ही खाता है। कहीं- कहीं दूध या खीर खाकर रहता है। अन्य भगता मेले के तीन दिन पूर्व से पटभगता की तरह रहते हैं। दोनों समय स्नान, ध्यान, पूजा, अर्चना करते हैं। फूलखुंदी के 24 घंटे पूर्व से निर्जला उपवास किया जाता है। पूरे दिन सात बार स्नान किया जाता है। भगताओं के साथ सोखताइनें भी स्नान करती हैं। स्नान के बाद भीगे वस्त्र पहने ही महादेव मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना की जाती है। स्नान के बाद शरीर सुखाया नहीं जाता। झारखंड में अब मंडा के समय झूलन में लोहे के हुक के स्थान पर कपड़े बाँधकर झुलाते हैं। कहीं-कहीं अब भी बनस यानी लोहे के हुक से झुलाया जाता है।